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"ख़बरों से रूबरू तो हम अनेक माध्यमों से होते हैं लेकिन “खबर छत्तीसी” ऐसी विश्लेषणात्मक पत्रिका है जो विषय विशेषज्ञों के जरिये खबरों के सकारात्मक और नकारात्मक पहलुओं पर विवेचनात्मक दृष्टिकोण डालती अपने सामाजिक सरोकारों और दायित्वों का परिपालन करती है. “खबर छत्तीसी” के साथ सत्य को परखिये सर्वथा नवीन वैचारिक धरातल पर.... "

Friday 30 December 2011

गयी भैंस पानी में

नाटक का पटाक्षेप हो गया. फिर ढांक के तीन पात. चालीस साल हो गये... चले कितना...? अढाई कोस भी नहीं. वाह! जय हो दिल्ली की....

चालीस साल में दसों बार सदन में पेश होने के बाद भी लोकपाल विधेयक जहाँ का तहां रह गया. यह क्या बताता है? राष्ट्र संचालन में रत हमारे विद्व नीति निर्धारक चालीस साल में एक सर्वमान्य मसौदा नहीं बना पाये तो इसे क्या कहना चाहिए? विद्वता में कमीं या इच्छाशक्ति की कमी?

आश्चर्य की बात कि कमी न विद्वता में दिखती है न इच्छाशक्ति में. अपनी विद्वता के चलते ही तो दिल्ली ने भ्रष्टाचार के खिलाफ चलने वाले जन आन्दोलनों को इतनी खूबसूरती के साथ जमींदोज किया है कि वह एक मिसाल बन गयी है, और आधी रात को निरीह जन पर जाकर लाठियों और अश्रु गोलों से हमला कर शान्ति पूर्ण आंदोलन को तहस नहस किया यह प्रचंड इच्छाशक्ति को ही इंगित करता है ना? फिर क्या कारण है? 

अरे सीधी से बात है भाई, पेट पे लात कोई बर्दाश्त नहीं कर सकता. फिर वो चाहे हेंड टू माउथ मजदूर भाई हों या माउथ टू एबडामन हमारे नेतागण.

ये तो सरासर शैतानी है अन्ना और रामदेव की जो बेचारे सीधे सादे नेताओं के पीछे पड़ गये हैं. सुना नहीं सेवा करने से मेवा मिलता है... आप लोग व्यर्थ ही देश की जनता को भडका रहे हैं... अरे अगर कोई देश की सेवा करने के बदले कुछ अधिकृत और कुछ अनाधिकृत मेवा हासिल कर ले तो बुराई क्या है? आखिर सपने और अपने खोने के एवज में इतना अधिकार तो बनता है न? जबरदस्ती आप लोग पीछे पड़े हो...! हां नहीं तो क्या...? अरे भाई मन्दिर में बैठ कर रघुपति राघव राजा राम गाओ  और लोगो को शराफत से योग सिखाओ. तुम अपना काम करो नेताओं को अपना काम करने दो. अब हो गयी न बेइज्जती? कितने लोग आये भला आंदोलन में? आकाश नापने की तमन्ना बुरी नहीं लेकिन पंख में हौसला भी तो हो. आकाश तो अभी भी मुस्कुरा रहा है सीना ताने और चुनौती देते...  आप ही पंख कटा कर पड़े हो जमीन में जटायु की तरह. और श्री राम बन कर आपको सहारा देने वाले भी स्वयम बैठे हैं आपके फिर सबल होने के इंतज़ार में... नई?

आप बोलते हो धोखा दिया गया... बिल लाने की बात कह कर मुकर गये... अरे हमारी दिल्ली तो निरंतर धर्म पथ पर चलती आई है. चालीस साल से लोकपाल को पास नहीं कराने के अपने धर्म पर आज तक अडिग है, और अडिग रहेगी भी. अरे वह अपने पेट पर लात कैसे मार सकती है भला? देखा नहीं लालबुझककड कैसे तिलमिला रहे थे सदन में. अगर सी बी आई सारा चारा बटोर कर ले गयी तो वो खायेंगे क्या और निचोडेंगे क्या? इसी प्रकार सबके अपने अपने चारे हैं, वारे हैं न्यारे हैं... वो कैसे किसी लोकपाल को अपने गिरेबान में हाथ डालने दे सकते हैं.

अब आप कहते हैं कि चुनावों के समय घूम घूम कर जनता को बताएँगे... उससे क्या होगा...? दिल्ली एक हाथ से निकल कर दुसरे हाथ में चली जायेगी... लेकिन आप ये कैसे सोचते हैं कि दूसरा हाथ चालीस साल से चली आ रही धर्म स्वरूपा परिपाटी को बदल कर लोकपाल पास करायेगा?

इसलिए ओ मेरे भोले अन्ना, ओ मेरे भले अन्ना, ओ मेरे प्यारे अन्ना.. आप भी जाओ अपने घर क्योंकि जिस भैंस को दूह कर आप देश को दूध पिलाने का सपना देख रहे थे वह भैंस तो गयी पानी में... और किसी को नहीं मालूम अब कब निकाली जायेगी.

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Thursday 9 June 2011

"बाबा को पत्र"

आदरणीय बाबा रामदेव जी,
सादर नमस्कार.
दिल्ली के रामलीला मैदान में आपके शांतिप्रिय सत्याग्रह को जिस प्रकार अत्याचार पूर्ण ढंग से दमित किया गया, वह सारे देश ने देखा. सारे देश ने देखा कि किस प्रकार निद्रामग्न सत्याग्रही रातोरात दिल्ली पुलिस द्वारा बलात खदेड़े गये...... देखा कि किस प्रकार आप अपने भक्तों के कन्धों में बैठकर लोगों से शान्ति बनाए रखने का अपील कर रहे थे..... देश ने सब कुछ देखा और इसीलिए, प्रतिक्रया भी दी.... सारे देश में बवाल मच गया... बड़े नगरों से लेकर छोटे छोटे कस्बों तक में लोग आपके समर्थन और सरकार के अत्याचार का विरोध करते दीखे... सारे देश ने आपके भ्रष्टाचार विरोधी सत्याग्रह को हाथों हाथ लिया...

फिर आपके विलोपन पर चिंतित देश ने आपका प्रगटन देखा.... फिर आपके प्रमुख सहयोगी का भी प्रागट्य देखा.... अपने महानायकों को आंसू ढालते देखा....और उन आंसुओं के साथ अपने आशाओं और विश्वास को भी बहते देखा.... सारे देश ने बहुत कुछ देखा बाबा...., सहस्त्रों सूर्य के तेज को बदलियों के आवेग में खो जाते देखा.... फिर देश ने आपकी हुंकार सुनी... सशत्र सेना बनाने का दावा सुना..... देश में फिर बवाल मच गया...

बाबा, देशवासियों  की समझ में यह नहीं आ रहा कि दरहकीकत आप चाहते क्या हैं? सूरत बदलना चाहते हैं या केवल हंगामा खडा करना चाहते हैं? सूरत बदलने की राह तो नज़र नहीं आ रही, हंगामा ही उठता दिख रहा है देश भर में....  आपने रामलीला मैदान से देश को संबोधित करते हुए कहा आप क्रांतिकारी पैदा हुए, फिर आप गांधी वादी बने.... ...और अब फिर आप क्रान्ति की राह पर चल पड़े हैं.... विचारों में इतने अधिक विचलन का अर्थ आखिर क्या निकाला जाय? यही ना कि अनेक दशकों से पैर जमाये भ्रष्टाचार रूपी सशक्त राक्षस के विरुद्ध रणभेरी फूंकने वाले देव  के पास कोई ढंग की रणनीति भी नहीं है. यही ना?

बाबा, कहीं आप के मन में मोह तो नहीं जनम रहा? अपने द्वारा (ट्रस्ट के नाम ही सही) खड़ी की गयी हज़ारों करोड की संपत्ति का मोह.... कहीं आपको यह डर तो नहीं सता रहा कि जिस प्रकार सरकार ने आपको रामलीला मैदान से बेदखल कर दिया था उसी प्रकार कहीं हज़ारों करोड की संपत्ति से भी बेदखल ना कर दे.... इसीलिए आप के द्वारा अपनी और अपने संपत्ति की सुरक्षा के लिए सशत्र सेना तैयार करने की योजना बनायी जा रही है... बाबा यहाँ भी आपके विचारों में भटकाव ही दिखता है... कभी आप कहते हैं कि सशत्र नवयुवक अपने प्राणों की आहुती देने से नहीं चुकेंगे.... फिर आप कहते हैं कि हम किसी को काटेंगे नहीं लेकिन कटेंगे भी नहीं... मारेंगे नहीं लेकिन मरेंगे भी नहीं....मिटायेंगे नहीं लेकिन मिटेंगे भी नहीं... बाबा, सत्याग्रह स्थल पर निरीह सत्याग्रहियों जो आपके आवाहन पर दौड़े चले आये थे, को पुलिस की बर्बर हिंसा के बीच छोडकर आपके और आपके साथियों के पलायन ने देशवासियों के मन में वैसे भी अनेक प्रश्न खड़े कर दिए है, अब आपके द्वारा सशत्र सेना के गठन की घोषणा ने तो भ्रम भी पैदा कर दिए.... भ्रम... कि आप अपने ग्यारह हज़ार भावी सैनिकों के लिए हथियार कहाँ से लायेंगे? भारत सरकार तो आपको हथियार देने से रही, फिर? क्या पड़ोसी मुल्कों से? अपराधियों से?? आतंकवादियों से??? नक्सलियों से???? कहाँ से....???? और क्या राष्ट्र से पृथक व्यक्तिगत सेना गठित करने का विचार देश की संप्रभुता को चुनौती नहीं है? 

बाबा एक बात कहें आपसे, आप अपना अनशन छोड़ कर कुछ दिन योग में मन रमाईये... मन को शांत करने के उपाय करिये... फिर शांतचित्त होकर एक राह निर्धारित करिये... फिर चलिए... और चलिए तो ऐसे चलिए कि दुनिया चाहे इधर की उधर हो जाये पर आप अपने पथ से ना डिगें... आपके आँखों की चिंगारी द्रवीभूत न होने पाए.... क्योंकि राह से डिगने वाले सफल नहीं हुआ करते, इतिहास नहीं बनाया करते.... और आंसू बहाता नायक देश स्वीकार नहीं कर सकता.... आपके आंसूं देशवासियों की भावनाओं को क्षणिक रूप से उद्वेलित तो कर सकते हैं पर आपका स्थायी अनुगामी नहीं बना सकते... इसलिए भावनाओं को नहीं दिमाग को उद्वेलित करने का रास्ता अपनाईये.....  महात्मा गांधी, लाजपत राय, भगत सिंह, राजगुरु, सुखदेव, चंद्रशेखर, सुभाष बोस, खुदीराम बोस ने एक बार जो राह अपने लिए निर्धारित की जीवन भर उसी राह में चले और बिना डिगे अपने प्राण भी माँ भारती के चरणों में न्योछावर कर दिए....

बाबा, सारा देश आपके पीछे चलने के लिए तैयार खडा है, पर उसके लिए पहले आपको अपना वैचारिक विचलन मिटाना होगा... अपने पीछे चलने को तैयार सवा अरब लोगों के लिए संविधान सम्मत पुख्ता राह निर्धारित करना होगा. और निश्चित रूप से वह रास्ता सत्य और अहिंसा का ही हो सकता है न कि सशत्र कदमताल का...
जयहिंद.
एक भारतवासी.   

Sunday 5 June 2011

“आखिर कब तक ?”


स्वतंत्र भारत के इतिहास में बहुत ही कम अवसर आये हैं जब लोगों को जात-पात, हिंदू-मुस्लिम, मंदिर-मस्जिद, उंच-नीच और दलित-फलित के विभाक्तिकारक अध्यायों से ऊपर उठाकर किसी बिंदु पर एकत्र करने का सद्प्रयास हुआ. ऐसा ही एक प्रयास कर रामदेव बाबा, ने भ्रष्टाचार, अनैतिकता, बे-ईमानी से ग्रस्त व्यवस्था के विरुद्ध भारत की जनता को जगा कर समग्र रूप से राष्ट्र के साथ खडा किया है.  

आज बाबा के लोकहितकारी सवालों से तिलमिलाई सरकार लोकतंत्र के मायने ही भूल बैठी है. रामलीला मैदान में अर्धरात्री रामदेव बाबा और हज़ारों सत्याग्रहियों का जिस बर्बरता से दमन किया गया, उसकी सफाई में चाहे जो दलील दी जाय... वह शत प्रतिशत अलोकतांत्रिक है, अत्याचार है, निंदनीय और प्रतिकारनीय है. यह दमनचक्र भारत की स्वतन्त्रता पर एक बड़ा प्रश्नचिह्न है.... लोकतंत्र पर प्रश्नचिह्न है....और सबसे बड़ा प्रश्नचिह्न माननीय भारत सरकार के तथाकथित आदरणीय मंत्रियों के संयमहीन उद्बोधनों ने भारत की संस्कृति पर लगा दिया है...
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दुनिया भर में आतंक का पर्याय बन चुके आतताई को जी कह कर संबोधित करने वाले अपनी वाणी की मर्यादा को लांघते हुए चीख चीख कर आज रामदेव को दो कौड़ी का झोलाछाप चोर और ठग बता रहे हैं..... अजीबो गरीब तर्क दिए जा रहे हैं...
० बाबा सन्यासी है...
० साधू की तरह रहें....
० शान्ति से योगासन सिखाएं
० राजनीति आसन न सिखाएं
० उनका क्षेत्र राजनीति नहीं है, और उन्हें अपने क्षेत्र में रहना चाहिए...
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इस तरह के अनर्गल प्रलाप करने वाले आदरणीय राजनीतिक पंडितों से यह बात कौन पूछे कि
० आचार्य चाणक्य तो शिक्षक थे, उन्हें क्या पडी थी देश की जनता को और राज सत्ताओं
  को एका का पाठ पढाने की, यमन आक्रान्ताओं के खिलाफ जगाने की ?
० राष्ट्रपिता महात्मा गांधी वकील थे चुपचाप वकालत करते, उन्हें क्या पडी थी लंगोटी
  पहन कर देश भर में स्वतंत्रता के लिए जन आंदोलन खडा करने की ?
० सुभाष चन्द्र बोस तो आई सी एस क्लिअर कर चुके थे, शान्ति से सरकार की नौकरी
  बजाते, उन्हें क्या पडी थी खानाबदोशों की तरह पूरी जिंदगी घूम कर दुनिया भर में
  अंग्रेजों के खिलाफ और भारत की स्वतन्त्रता के लिए समर्थन जुटाने की ?
० युवा भारत के स्वप्न दृष्टा राजीव गांधी तो पायलट थे उन्हें क्या आवश्यकता थी कि वे
  प्रधानमंत्री बनकर तकनीकी और संचार के क्षेत्र में सिद्धस्त भारत का आधार बने ? 

आज अगर एक सन्यासी जनगनमन की पीड़ा को स्वर देने का प्रयास कर रहा है तो वह क्यों गलत है? इस प्रकार के अनर्गल तर्क सरकार और सरकार में विराजमान तथाकथित विचारवान चिंतकों की विचार शून्यता को ही उजागर करती है. सच्चाई तो यह है कि आज देश की किसी भी मुद्दों पर सरकार का नियंत्रण नहीं रह गया है. या शायद सरकार अपना नियंत्रण रखना ही नहीं चाहती. फिर चाहे वह मुद्दा पेट्रोल, डीजल, कैरोसिन, रसोईगैस खाद्य पदार्थों की कीमतों का हो या समय समय पर घात लगाकर राष्ट्र की अस्मिता पर प्रश्नचिह्न लगाने वाले आतताईयों का मुद्दा. सरकार हमेशा बेकफुट पर ही खड़ी नज़र आती है. अरे भाई जब आप किसी चीज पर नियंत्रण नहीं रख सकते तो सत्ता में बैठकर निरीह जनता को सताने का काम तो ना करों.  

मुख्य प्रश्न यह है कि क्या भारत के एक आम नागरिक को सरकार से सवाल करने या राष्ट्रहित के मुद्दे उठाने की स्वतन्त्रता नहीं है? और नहीं तो इस छद्मलोकशाही और बर्बर तानाशाही में फर्क क्या रह जाता है?   तर्क दिए जा रहे हैं कि अनुमति से अधिक लोग जमा थे.... अरे जब सरकार के मंत्रीगण रामदेव से चर्चा कर रहे थे तब वहाँ लोग नहीं थे क्या? जब उनके सवालों, जो वस्तुतः देश की जनता के ही सवालात है; का संतुष्टी जनक जवाब दे पाने में सरकार असफल हो गयी तभी क्यों अनुमति से अधिक उपस्थिति का भान हुआ ? तभी क्यों अनुमति निरस्त करने और मैदान खाली कराने का का ख़याल आया? और आया भी तो कब, आधीरात को जब बच्चे, बुजुर्ग, महिला सत्याग्रही सोये थे ? जिस पुलिस पर देश की आंतरिक सुरक्षा का भार होता है वह कैसे आधीरात को हज़ारों लोगों को आश्रयहीन बनाकर बर्बरता पूर्वक खदेड़ने का दुसकृत्य करती है?  निश्चित रूप से यह शर्म की बात है.

आज यह कहना अनुपयुक्त ना होगा कि लोकतंत्र अपनी मर्यादा की रक्षा के लिए लोक की तरफ ही निगाह लगाए बैठी है, लोक को ही तमाम प्रकार की राजनीति से ऊपर उठकर भारत का भविष्य निर्धारित और सुरक्षित करने के लिए सोचना होगा...  भ्रष्टाचार और सड़ी गली व्यवस्था के खिलाफ आवाज़ बुलंद कर सरकार से पूछना होगा-  आखिर कब तक ? 

Tuesday 31 May 2011

विश्व तम्बाखू निषेध दिवस – एक चिंतन

म्बाखू सेवन से होने वाली घातक और जानलेवा बीमारियों से आम जन को जागरूक करने के उद्देश्य से प्रति वर्ष ३१ मई को विश्व तम्बाखू दिवस के रूप में मनाया जाता है. तम्बाखू का सेवन चाहे वह बीडी, सिगरेट के रूप में हो चाहे गुटखा, गुडाखू या खैनी के रूप में, इसके सेवन करने वाले व्यक्तियों में मुह गले व फेफड़े के कैंसर होने की संभावना अत्यधिक बढ़ जाती है. विश्व में तकरीबन ८ लाख लोग प्रतिवर्ष तम्बाखू सेवन से होने वाली घातक बीमारियों का शिकार होकर असमय काल के गाल में समा जाते हैं.

विश्व में लगभग १०० करोड लोग किसी ना किसी रूप में तम्बाखू का सेवन करते हैं जिनमें से करीब ३० प्रतिशत (अर्थात ३० लाख) संख्या हमारे देश में ही है. तमाम पाबंदियों, चेतावनियों के बावजूद यह संख्या निरंतर ऊपर की ओर ही जा रही है. तम्बाखू का सेवन करने वालों में सभी आयु वर्ग के लोग सामान रूप से सम्मिलित है. युवा वर्ग शौक में धूम्रपान और तम्बाखू उत्पादों का सेवन प्रारंभ करता है और कालांतर में उनका यह शौक लत बनकर उन्हें ही अपने खतरनाक पंजों में दबोच लेता है और जिनसे वे चाह कर भी छूट नहीं पाते. चौंकाने वाला तथ्य धूम्रपान के प्रति महिलाओं की बढ़ती रूची है. हमारे देश में ग्रामीण महिलाओं में तम्बाखू युक्त उत्पाद गुडाखू अत्यंत लोकप्रिय है और इसका इस्तेमाल उनके द्वारा दन्त मंजन के रूप में किया जाता है. विश्व स्वास्थ्य संगठन की रिपोर्ट के अनुसार पुरुष और महिलाओं में तम्बाखू उत्पाद सेवन का अनुपात २:१ है. कोई आश्चर्य नहीं कि आज देश में मुह, गले, फेफड़े के साथ बच्चादानी कैंसर के मरीजों की संख्या में चिंतित करने वाली वृद्धि दर्ज की जा रही है.

यद्यपि तम्बाखू उत्पादों पर स्वास्थ्य के लिए हानिकारक होने जैसी चेतावनी अंकित होते हैं लेकिन तम्बाखू उत्पाद सेवन करने वालों की बढ़ती संख्या इन चेतावनियों के कारगर नहीं होने की कहानी स्वयम ही बयान कर देती हैं. निश्चित है देश की युवा पीढ़ी को इसके भयानक दुष्प्रभावों से बचाने के लिए तमाम स्वयमसेवी संगठनों द्वारा वृहत और सघन जनजागरूकता अभियान संचालित करने साथ साथ शाशकीय स्तर पर भी चेतावनियों से आगे जाकर ज्यादा गंभीर, प्रभावी एवं ठोस उपाय करने की दिशा में कदम उठाना होगा.

विश्व में अनेक देशों हैं जहां  तम्बाखू सेवन से उपजने वाले बीमारियों के मद्देनज़र तम्बाखू पर आंशिक या पूर्ण प्रतिबन्ध लागू हैं. आयरलेंड विश्व का ऐसा पहला देश है जिसने तम्बाखू का किसी भी प्रकार से उपयोग पर पूर्णतः पाबंदी लागू किया है. हमारे देश में भी सार्वजनिक स्थानों पर धूम्रपान पर प्रतिबन्ध है लेकिन भारत जैसे विशाल जनसंख्या वाले देश में जहां की बहुत बड़ी जनसंख्या के बीच धूम्रपान, खैनी गुटखा और गुडाखू आवभगत तथा मेहमाननवाजी का जरिया है, में यह प्रतिबन्ध एकदम नाकाफी है और यहाँ भी तम्बाखू उत्पाद निर्माण, व्यापार और सेवन पर पूर्ण प्रतिबन्ध के अलावा जमीनी स्तर पर सामाजिक और वैचारिक क्रान्ति आवश्यक है.

आईये, आज विश्व तम्बाखू निषेध दिवस पर हम स्वयम ही दृढ निश्चय के साथ अपने ऊपर तम्बाखू प्रतिबंध को लागू करने का संकल्प लेकर स्वस्थ्य और खुशहाल जीवन का आधार तैयार करें.

तम्बाखू उपयोग से करें इनकार, तभी होंगे बंद बीमारियों के द्वार

-ललित मिश्रा.
(लेखक छत्तीसगढ़ प्रदेश के जाने माने साहित्यकार, कवि, चिन्तक एवं समाजसेवी  हैं.)

Sunday 29 May 2011

शहीद की अंत्येष्टि के लिए लेना पड़ा क़र्ज़

त्तीसगढ़ की राजधानी रायपुर के दूरस्थ अंचल आमामोरा की नक्सली हमले में 9  जवान एवं एएसपी की शहादत के बाद विगत दिनों एक और मार्मिक खबर प्रकाश में आया है | "शहीद हेमेश्वर की अंत्येष्टि के लिए लेना पड़ा क़र्ज़" गौरतलब है की इस घटना में ग्राम भैसामुडा के श्री हेमेश्वर ठाकुर भी शहीद हो गए थे, उनकी अंत्येष्टि के लिए परिजनों को ग्राम के सार्वजानिक विकास निधि से 25  % ब्याज पर कर्ज लेना पड़ा क्योंकि शासन द्वारा घोषित राशी परिजनों को प्रसाशनिक लापरवाही के चलते समय पर प्राप्त नहीं हो सकी जबकि घटना के पश्चात राज्य शासन के मुखिया समेत तमाम प्रशासनिक अधिकारियों  द्वारा शहीद के परिजनों को विश्वास दिलाया गया था की इस विपरीत परिस्थिति शासन प्रशासन उनके साथ है शहीद हेमेश्वर के परिवार को हरसंभव सहायता दी जाएगी मगर इस आश्वाशन की हकीकत तत्काल ही सामने आ गयी इधर सेठ साहूकारों ने भी  यह कहकर कर्ज देने से मना करने के बाद कि "अब तुम्हारे परिवार में कोई कमाने वाला नहीं रहा तुम लोग कर्ज कहाँ से चुकाओगे"  मजबूरन ग्राम के सार्वजानिक विकास निधि से 25% ब्याज पर कर्ज लेना पड़ा |

अपने लाडले के शहादत के पश्चात प्रशासन की इस लापरवाही से शहीद के परिजन बेहद दुखी हैं और उनपर अब दुःख का दोहरा पहाड़ टूट पड़ा है | जहाँ उन्हें अपने लाडले हेमेश्वर का इतनी जल्दी छोड़कर चले जाने का गम खाए जा रहा है वहीं सारे परिवार को इस क़र्ज़ को चुकाने की चिंता ने भी घेर लिया है | शहीद हेमेश्वर की माँ बुधियारिन बाई के अनुसार उन्होंने अपने लाडले हेमेश्वर को भीख मांगकर पढाया लिखाया था और अब वह उन्हें इस हाल में छोड़कर चला गया | इस घटना ने सरकारी आश्वाशनों और उसकी हकीकत पर भी सवालिया निशान लगा दिया     है | 

शहीदों के प्रति शासन और प्रशासन की संवेदनहीनता भी इस घटना के माध्यम से स्पष्ट है | विचारणीय तथ्य यह है कि ऐसे संवेदनशील समय में भी प्रशासन इतना लापरवाह कैसे हो सकता है ? क्यों किसी भी शहीद को उसका जायज हक और सम्मान के  लिए उनके दुखियारे परिजनों को सरकारी दफ्तरों के चक्कर लगवाये जाते हैं ?  जरा सोचिये कि क्या शहीदों को पुष्पचक्र अर्पित करने, सलामी देने, और शहीदों की चिताओं पर हर बरस लगेंगे मेले...  जैसे डायलोग मारने मात्र से ही जिम्मेदारी समाप्त हो जाती है ? शहीदों की चिताओं पर मेला लगना तो दूर आज तो शहीद की चिता जलाने के लिए भी परिजनों को कर्ज लेना पड़ रहा है  | वाकई इस घटना ने जनमानस को झकझोर कर रख दिया है और अब यही उम्मीद की जा रही है की इस घटना की पुनरावृत्ति कभी भी किसी भी के साथ न हो | 

खबर छत्तीसी परिवार की ओर से शहीदों को  अश्रुपूरित श्रद्धासुमन 
{गौरव शर्मा "भारतीय}
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Tuesday 24 May 2011

छत्तीसगढ़ या नक्सलगढ़

राजधानी रायपुर से ज्यादा दूर नहीं है आमामोर, जहां नक्सलियों ने घात लगाकर गश्त से लौटते सुरक्षा दस्ते पर हमला कर दिया.  एडिशनल एस पी और उनके १० जवान इस क्रूर हमले में शहीद हो गये.   देखा जाय तो मई का महीना और विशेषतः पिछले सप्ताह में छत्तीसगढ़ की छाती नक्सली हिंसा से कुछ ज्यादा ही दहलती रही है. आंकड़ों की बातें ना करना इसलिए उचित है कि हम, आप, प्रदेश और सभी देशवासियों का इन आंकड़ों से भले ही दर्दभरा किन्तु अच्छा खासा  परिचय है. इसी साल फ़रवरी में आमामोर के ही सरपंच को सशत्र माओवादियों ने क़त्ल कर दिया था. तभी से गरियाबंद के आसपास बड़ी वारदात की भूमिका लगभग तैयार हो गयी थी जो अंततः कल २३ मई को हकीकत बन कर हमारे सामने आई.

छत्तीसगढ़ पूरे देश में शांत, सुरम्य और द्रुत वेग से विकास पथगामी राज्य के रूप में पहचाना जाता  है लेकिन पिछले कुछ वर्षों में हिंसा की जिस धधकन को प्रदेश ने महसूस किया है, झेला है, वह बहुत ही खौफनाक भविष्य की तरफ इशारा करता है.

आश्चर्य की बात यह है कि जब भी कोई बड़ी वारदात नक्सलियों के द्वारा अंजाम दी जाती है, सता के गलियारों में हलचल होने लगती है. सशस्त्र और कठोर कार्यवाही की बातें उड़ने लगती हैं. सेना की सुपुर्दगी के हवाले दिए जाने लगते हैं. लेकिन जैसे ही  जंगलों और पहाड़ों में नक्सली बूटों की चाप कुछ मद्धम होती है सता का गलियारा भी उसी अनुपात में शान्ति ओढ़ कर बैठ जाता है. दुष्यंत कुमार को याद करते हुए पूछना होगा कि क्या क्या हमारे शहीद होते जवानों के होठों से निकलने वाली चीखें इतनी मद्धम है कि ए सी लगे बंद दरवाजों के पार नहीं जा पाती या इन दर्दनाक चीखों ने सता के कानों को ही इस कदर बहरा कर डाला है कि उन्हें राजधानी की ओर नज़दीक.... और नज़दीक आती नक्सली बूटों की आहट भी सुनाई नहीं पड़तीं? 

अभी माना के चीरघर में डाक्टरों के दल के द्वारा शहीदों के शवों का पोस्टमार्टम किया जा रहा है लेकिन खबर छत्तीसी की नज़र में आवश्यकता शहीदों के शवों के पोस्टमार्टम से ज्यादा शाशन की सुरक्षा नीतियों के पोस्टमार्टम की है. आवश्यकता है सम्हल जाने की.... आवश्यकता है गंभीरता से सशक्त रणनीति बनाकर इस विषम समस्या का सामना करने की..... जैसा कि आवश्यकता महसूस होती है क्यों नहीं शाशन सेना के पुरजोर आक्रमण के सहारे इन निरंकुश आतताईयों को कुचल देती? क्या ऐसा करना राज्य की जनता और राज्य की सुरक्षा में रत जवानों की शहादत का निंदा से ज्यादा कारगर जवाब नहीं होगा?

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(खबर छत्तीसी की पूरी टीम की तरफ से शहीद जवानों को आदरांजली.... परमपिता उनके परिवार को यह विपदा सहने की शक्ति प्रदान करे.... आमीन.)

Sunday 22 May 2011

यह गलती किसकी है?

उस दृश्य की कल्पना करें जहां गोरे सिपाही लाठियां बरसाए जा रहे हैं, आज़ादी के दीवाने लहुलुहान हुए जा रहे हैं, एक गिरता है तो दुसरा उसकी जगह ले लेता है, लेकिन राष्ट्रस्मिता अमर तिरंगा को ज़मीन तक नहीं आने दिया जाता....

यह थी भावनाएं हमें और हमारे मुल्क को आज़ादी की सौगात देने वाले दीवानों की.... और आज... आज तो ऐसे दृश्य आम हो गये हैं जहां राष्ट्र के सम्मान  का प्रतीक तिरंगा बेहद आपत्तिजनक स्थिति में नज़र आता है.  क्या तिरंगे के प्रति सम्मान की भावनाएं शहीदों के साथ ही विलुप्त हो गईं?

भारत में हर नागरिक को राष्ट्र ध्वज फहराने का अधिकार मिला हुआ है जो निश्चितरूप से गौरवपूर्ण और रोमांचकारी है. लेकिन दुःख तो तब होता है जब हम ही उस अधिकार का मान नहीं रख पाते और कर्तव्य विमुख हो अपने राष्ट्र ध्वज कहीं भी फेंक आने से गुरेज नहीं करते.

ऐसा ही एक शर्मनाक और आपत्तिजनक दृश्य हमें राजधानी रायपुर के एक अति संपन्न इलाके में देखने को मिला जहांपर अशोकचक्र मय  तिरंगे का बण्डल मुक्कड़ में डाल दिया गया था. "खबर छत्तीसी" द्वारा सुचना देने पर ज़ोन कमिश्नर और वार्ड पार्षद ने तत्परता के साथ कार्यवाही करते हुए बड़ी संख्या में पड़े तिरंगे को उठवाया 

खबर छत्तीसी उन्हें साधुवाद देते हुए सरकार से अनुरोध करता है कि राष्ट्र ध्वज को व्यवसाय के रूप में स्थापित ना होने दें. निर्धारित आकार और कपडे का ही तिरंगा उपयोगार्थ उपलब्ध हो. किसी भी प्रकार से कागज़ और प्लास्टिक के तोरणों के रूप में तिरंगे की छपाई और इस्तेमाल पर पूर्ण प्रतिबन्ध लागए जाए. ताकि राष्ट्र ध्वज का सम्मान अक्षुण्य रहे. साथ ही हम आमजन से विनम्र अपील करते हैं कि "मित्रों, तिरंगा हमारी आन बान और शान है  और  इसका स्थान सबसे ऊंचा ही अभीष्ट है. बेशक हम इसका इस्तेमाल गर्व से करें यह हमारा अधिकार है. लेकिन इसे इसे गर्व के साथ रखें भी, क्योंकि यही हमारा कर्तब्य है."
जयहिंद