नाटक का पटाक्षेप हो गया. फिर ढांक के तीन पात. चालीस साल हो गये... चले कितना...? अढाई कोस भी नहीं. वाह! जय हो दिल्ली की....
चालीस साल में दसों बार सदन में पेश होने के बाद भी लोकपाल विधेयक जहाँ का तहां रह गया. यह क्या बताता है? राष्ट्र संचालन में रत हमारे विद्व नीति निर्धारक चालीस साल में एक सर्वमान्य मसौदा नहीं बना पाये तो इसे क्या कहना चाहिए? विद्वता में कमीं या इच्छाशक्ति की कमी?
आश्चर्य की बात कि कमी न विद्वता में दिखती है न इच्छाशक्ति में. अपनी विद्वता के चलते ही तो दिल्ली ने भ्रष्टाचार के खिलाफ चलने वाले जन आन्दोलनों को इतनी खूबसूरती के साथ जमींदोज किया है कि वह एक मिसाल बन गयी है, और आधी रात को निरीह जन पर जाकर लाठियों और अश्रु गोलों से हमला कर शान्ति पूर्ण आंदोलन को तहस नहस किया यह प्रचंड इच्छाशक्ति को ही इंगित करता है ना? फिर क्या कारण है?
अरे सीधी से बात है भाई, पेट पे लात कोई बर्दाश्त नहीं कर सकता. फिर वो चाहे हेंड टू माउथ मजदूर भाई हों या माउथ टू एबडामन हमारे नेतागण.
ये तो सरासर शैतानी है अन्ना और रामदेव की जो बेचारे सीधे सादे नेताओं के पीछे पड़ गये हैं. सुना नहीं सेवा करने से मेवा मिलता है... आप लोग व्यर्थ ही देश की जनता को भडका रहे हैं... अरे अगर कोई देश की सेवा करने के बदले कुछ अधिकृत और कुछ अनाधिकृत मेवा हासिल कर ले तो बुराई क्या है? आखिर सपने और अपने खोने के एवज में इतना अधिकार तो बनता है न? जबरदस्ती आप लोग पीछे पड़े हो...! हां नहीं तो क्या...? अरे भाई मन्दिर में बैठ कर रघुपति राघव राजा राम गाओ और लोगो को शराफत से योग सिखाओ. तुम अपना काम करो नेताओं को अपना काम करने दो. अब हो गयी न बेइज्जती? कितने लोग आये भला आंदोलन में? आकाश नापने की तमन्ना बुरी नहीं लेकिन पंख में हौसला भी तो हो. आकाश तो अभी भी मुस्कुरा रहा है सीना ताने और चुनौती देते... आप ही पंख कटा कर पड़े हो जमीन में जटायु की तरह. और श्री राम बन कर आपको सहारा देने वाले भी स्वयम बैठे हैं आपके फिर सबल होने के इंतज़ार में... नई?
आप बोलते हो धोखा दिया गया... बिल लाने की बात कह कर मुकर गये... अरे हमारी दिल्ली तो निरंतर धर्म पथ पर चलती आई है. चालीस साल से लोकपाल को पास नहीं कराने के अपने धर्म पर आज तक अडिग है, और अडिग रहेगी भी. अरे वह अपने पेट पर लात कैसे मार सकती है भला? देखा नहीं लालबुझककड कैसे तिलमिला रहे थे सदन में. अगर सी बी आई सारा चारा बटोर कर ले गयी तो वो खायेंगे क्या और निचोडेंगे क्या? इसी प्रकार सबके अपने अपने चारे हैं, वारे हैं न्यारे हैं... वो कैसे किसी लोकपाल को अपने गिरेबान में हाथ डालने दे सकते हैं.
अब आप कहते हैं कि चुनावों के समय घूम घूम कर जनता को बताएँगे... उससे क्या होगा...? दिल्ली एक हाथ से निकल कर दुसरे हाथ में चली जायेगी... लेकिन आप ये कैसे सोचते हैं कि दूसरा हाथ चालीस साल से चली आ रही धर्म स्वरूपा परिपाटी को बदल कर लोकपाल पास करायेगा?
इसलिए ओ मेरे भोले अन्ना, ओ मेरे भले अन्ना, ओ मेरे प्यारे अन्ना.. आप भी जाओ अपने घर क्योंकि जिस भैंस को दूह कर आप देश को दूध पिलाने का सपना देख रहे थे वह भैंस तो गयी पानी में... और किसी को नहीं मालूम अब कब निकाली जायेगी.
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